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बिहार में शिक्षा व्यवस्था

शिक्षा का नाता सभी से है, वैश्य समाज इसका अपवाद नहीं है। छात्रा भी वैश्य है और शिक्षक भी वैश्य अर्थात् शिक्षा सभी से संबंध्ति है। इसलिए यह कापफी महत्वपूर्ण विषय है हमारा दिमाग तेजी काम करता है लेकिन, इसकी सपफलता में योगदान सभी अंगों का होता है। पांव में जख्म हो, दर्द अध्कि हो तो दिमाग अपना काम सही-सही नहीं कर पाता है। कहने का आशय है कि पूर्ण पफल/परिणाम के लिए सारी व्यवस्थाएं सही हो। 

गाली सिखाने का कोई स्कूल नहीं है। झूठ बोलने की कला में दक्ष करने के लिए कोई काॅलेज नहीं है, कोई कोर्स नहीं होता है। लेकिन बच्चे भी गालियां देते है, झूठ बालने में ऐसे माहिर कलाकार समाज में होते हैं कि उनके सामने सच शरमाकर पानी-पानी हो जाता है। अर्थात् गाली और झूठ यह दोनों परिवार और स्थानीय समाज के वातावरण में लोग स्वतः सीखकर इसमें पांडित्य प्राप्त कर लेते हैं। विकास के लिए न केवल स्वस्थ शरीर की जरूरत है, बल्कि स्वस्थ समाज की भी उतनी ही जरूरत है।

किसी भी घर और परिवार को स्वच्छ, सुन्दर और समृ( बनाने के लिए गृहस्वामी के साथ-साथ परिवार के सभी सदस्यों के अध्किाध्कि सहयोग की जरूरत होती है, व्यक्तिगत स्तर से अध्कि-से-अध्कि सहयोग देने की प्रतिस्पर्ध हेाती है, दूसरे के दायित्व निभाने में सहयोग करते रहने की प्रबल इच्छा होती है तो प्रेम का वातावरण बनता है, शांति विराजती है, सब लोग अपने-अपने दायित्व का अच्छी से अच्छी तरह के निर्वहन करने को तत्पर हो जाते हैं। इस प्रकार की भावना में संघर्ष से घिरे घर और परिवार सपफलता का लक्ष्य और समाज में सम्मान पा लेता है।
बिहार के राज्यपाल राजेन्द्र विश्वनाथ आर्लेकर ने शिक्षा व्यवस्था को सही पथ पर लाने के लिए सराहनीय कदम उठाएं हैं, जिसका प्रभाव दिख रहा है। पूर्व के राज्यपाल पफागू चैहान ने बिहार के उच्च शिक्षा को बेपटरी कर दिया था।  पफागू चैहान के  पूर्व, राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने उच्च शिक्षा को पटरी पर लाने का कोशिश किया था। मुख्यमंत्राी ने चाणक्या राष्ट्रीय विध् िविश्वविद्यालय की स्थापना की, लेकिन जिस उद्देश्य से किया वह पूरा नहीं हो सका, आगे यह स्पष्ट होगा।
बिहार की बदहाल परीक्षा प्रणाली, मैट्रिक और इंटर की परीक्षा व्यवस्था बिहार के लिए कलंक का टीका था। मुख्यमंत्राी नीतीश कुमार ने इस दिशा में गंभीर हुए और आनंद किशोर, आईएएस पदाध्किारी को इस व्यवस्था को दुरूस्त करने का कार्य सौंपा। आनंद किशोर ने परीक्षा व्यवस्था को बदहाल हालत से निकाल दिया। ससमय कदाचार रहित परीक्षा कराया और समय रहते परीक्षापफल प्रकाशित किया और इस काम में देश का नम्बर वन राज्य बन गया। मैट्रिक और इंटर का परीक्षा और परीक्षा पफल समय पर आने से बिहार के छात्रों को बिहार के बाहर नामांकन कराने का अवसर दिया। साध्न सम्पन्न परिवार के युवक-युवतियां बिहार के बाहर क्यों पढ़ने चले जाते हैं? आगे की सूची से स्पष्ट आप जान सकेंगे।
बिहार की एक विशेषता है - हम बिहारी अपने जाति, पास-पड़ोस, रिश्तेदार इन सबको सम्मान देने में कंजूस होते हैं, वैश्य अपने कंजूसी गुण का यहां सर्वाध्कि उपयोग करता है। हम मुस्कुराने और प्रशंसा करने में कंजूस हैं, सपना देखने में कंजूस हैं। सही काम करने वाले को भी हम ध्र्म, जाति के चश्में से देखते हैं। आनंद किशोर के इस काम की सराहना नहीं की गयी,  उन्हें किसी ने एक पफूल भी भेंट नहीं किी, माला नहीं पहनाया। यह बात जरूर है जिस जाति से बिहार के बच्चे टाॅप किये, उसे अपने क्षेत्रा में जातिे के लोग, स्थाीनय लोगों ने बच्चों को प्रोत्साहित करने के लिए उन्होंने सम्मानित किया, लेकिन किसी ने आनंद किशोर को अपने मंच पर बुलाकर सम्मानित नहीं किया, उनका नाम नहीं लिया, उनके सही काम की प्रशंसा नहीं की, मुख्यमंत्राी नीतीश कुमार के प्रति आभार नहीं जताया। 
के.जे. राव ने बिहार में दूसरी बार लोकतंत्रा की स्थापना की, लेकिन उसे किसी ने सम्मानित नहीं किया, जबकि वे भारत रत्न के हकदार हैं, यह हकदार में पहली दावेदारी टीएन शेषन की है। देश मं किसी ने टीएन शेषण और राव के लिए भारत रत्न देने की मांग नहीं की।
बिहार की बदतर शिक्षा के लिए सरकारी मिशनरी तो जिम्मेदार है ही, साथ में हम सभी उतने ही जिम्मेदार हैं। शाॅर्टकट रास्ता है, हम साध्न सम्पन्न है, प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाते हैं, बिहार के बाहर भेजते हैं। यहां के सरकारी स्कूल में शिक्षक भी यही करते हैं। सरकार शिक्षा सुधर हेतु कोई कानून नहीं बनायी है कि बिहार सरकार के कर्मचारी, प्रोपफेसर, केन्द्र सरकार के कर्मचारी सभी के बच्चे सरकारी स्कूल व काॅलेज में ही पढ़ेंगे। इस कानून को बनाने के लिए न तो कोई राजनीतिक दल, ना ही कोई सामाजिक संगठन प्रभावशाली तरीकों से सरकार के समक्ष मांग रखी है। कुछ लोग पफेसबुक पर लिखकर अपनी भावना प्रकट करते हैं, वहां भी उसे समर्थन नहीं मिलता, जितना हकदार हैं।

अपनी इस मानसिकता के लिए किसे दोषी ठहराया जाए? बिहार के विश्वविद्यालय का अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय रैंकिंग या रेटिंग देखकर शर्म से गथ जाएंगे। आप अपना माथा पीट लेंगे, सर का बाल नोचने लगेंगे, संवेदनशील बिहारी का ब्लड प्रेशर घट-बढ़ सकता है, मध्ुमेह वाले का सुगर बढ़ जाएगाा। आप सोचने को विवश होंगे, क्या हम वही बिहार के वासी है जहां नालंदा और विक्रमशीला जैसे विश्वविद्यालय हुआ करते थे। दावा करते हैं भारत विश्व गुरू था और इतने वर्षों में विश्व गुरू बनेगा, क्या ऐसी ही व्यवस्था में? क्या बिहार भारत में नहीं है?

दुनिया में प्रति व्यक्ति आय के मामले में यूरोप का एक छोटा-सा देश लक्जमबर्ग है, नंबर वन पर है। प्रति व्यक्ति आय एक लाख नौ हजार छः सौ दो (1, 09, 0602) अमेरिकी डाॅलर सलाना है अर्थात् भारतीय रूपये में 89, 59, 486 रूपये अर्थात् लगभग 90 लाख रूपये सालाना। इसकी आबादी बिहार के सहरसा जिला के सिमरी बख्तियारपुर अनुमंडल के लगभग है, जो जनसंख्या के दृष्टिकोण से बिहार के 102 अनुमंडल में 83वां स्थान रखता है। बिहार के सबसे छोटे जिला शिवहर से भी इसकी आबादी कम है। बिहार के बेगूसराय जिला के बेगूसराय प्रखंड से आबादी कम है और नालंदा जिला के बिहार प्रखंड की आबादी से थोड़ी अध्कि है। क्षेत्रापफल में भागलपुर जिला से मात्रा 17 वर्ग किलोमीटर बड़ा और सारण जिला के क्षेत्रापफल से 55 वर्ग किलोमीटर छोटा। लक्जमबर्ग की आबादी साढ़े पांच लाख और क्षेत्रफल 2586 वर्ग किलोमीटर है। यहां लोहा का खदान, पेट्रोल का कुंआ नहीं है। मुख्य आय का स्त्रोत बौद्धिक क्षेत्रा है। बिहार का प्रति व्यक्ति आय 54, 383 रूपये सालाना है।

हमने तो कसम खायी है, अनुसूचित जाति और जनजाति को बैठने नहीं देना है, अति पिछड़े-पिछड़े को खड़ा नहीं होने देना है, जाति के नाम पर अपराध्यिों, बाहुबलियों और ध्नपशुओं को आगे लाना है, उस जाति के बु(िजीवी, विद्वान और प्रतिभावान को कुचल देना है। ये उच्च जाति की मानसिकता है। बाकी काम हिन्दू और मुसलमान कर देता है। गांव का चैपाल, चाय-पान की दूकान, चैक-चैराहा, सरकारी-गैर सरकारी कार्यालय में पफुर्सत के क्षण, स्कूल और काॅलेज सभी जगह इसकी चर्चा होती है। पेट भरने के बाद इससे अपना मनोरंजन करते हैं। राजनीतिक दल और सामाजिक और जातीय संगठन इस चर्चा से बाहर निकली नहीं है। सच्चाई यही है कि हम बिहारवासिों को ना तो अपने बाल-औलाद के भविष्य की चिंता है, ना ही बिहार की। हम अक्लमंद हैं, बच्चे को काबिल बनाकर बिहार से बाहर अन्यान्य प्रदेश और विदेश भेज देते हैं। वृ(ाश्रम को अपना घ्र बना लेते हैं, और बेटा से मुखाग्नि पाने के लिए मरने के बाद भी दो-तीन दिन बपर्फ पर चीर निंद्रा में सोते हैं, तेरह दिन के श्रा(कर्म तीन दिन में निपटाने का अवसर देते हैं। हमारी सोच का अंतिम परिणाम इसी रूप में सामने आ पाता है और यह आम बिहारी के साथ नहीं होता है, ये विद्वान, बु(िमान और साध्न सम्पन्न, अमीर बिहारियों के साथ होता है, जो जीवन भर जातीय श्रेष्ठता को बनाये रखने के उन्माद में जीते हैं।

अब प्रस्तुत है बिहार के विश्वविद्यालय का राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग के साथ नाम-



उच्च शिक्षा के मामले में बिहार का यह कडुवा सच है। आम बिहारी इसे अपना भाग्य मान चुका है। बिहार सरकार द्वारा प्रतिभा हो तो कैसे? बिहार के माथे के कदाचार का कलंक मिटाया है, वैसे ही बिहार के उच्च शिक्षा को सम्मानजनक स्थान दिलाया जा सकता है। बहुत सारे निजी काॅलेज व यूनिवर्सिटी अपनी सुविध-संसाध्न का गुणगान करते नहीं थकते, बड़े-बड़े विज्ञापन देते हैं, लेकिन राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय रैंकिंग / रेटिंग नहीं बताते। बिहार के काॅलेज के रैंकिग के कारण यहाँ कैम्पस सलेक्शन या प्लेसमैंट नहीं होता है।
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