वैश्य नामित अनेकानेक संगठन के साथ-साथ वैश्य के अनेक घटकों में एकाध्कि संगठन हैं। लेकिन किसी के पास समाज और प्रदेश की आवश्यकता पूर्ति के लिए, न कोई सपना है, ना ही योजना है। केवल और केवल मुंहजुबानी अपने आप को श्रेष्ठ कहने का खुली प्रतियोगिता है। काम के आधर पर श्रेष्ठता सि( करने की विचार का घोर अभाव है। पंचायत के वार्ड स्तर से लेकर मुखिया जिला परिषद तथा नगर के वार्ड स्तर से लेकर मुख्य पार्षद, उप मुख्य पार्षद, अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, उपमेयर और मेयर व विधयक के लिए आपसी तालमेल नहीं है।
वैश्य में सर्वाध्कि आबादी वाला घटक सभी पदों पर अपनी दावेदारी देकर वैश्य एकता भावना का गला घोट रही है। जिस घटक का जहां आबादी है, वहां सभी पदों पर एकाध्किार चाहती है। पफलतः छोटी-छोटी आबादी वाला घटक खामोशी से उसके विरू( चला जाता है। परिणाम होता है कि सहजता से जिस सीट पर वैश्य का अध्किार सुनिश्चित हो जाता है, वह सीट अन्य जातियों के हाथ में हो जाता है।
वैश्य नामित संगठन इन छोटे-छोटे चुनावों में अपने दायित्व से मुंह मोड़ लेती है, कारण है कि यह संगठन कागजों की शोभा है। साध्न सम्पंन लोग विधयकी पर दावेदारी के लिए विभिन्न प्रकार का आयोजन करता है, उसे वैश्य के आम लोगों से दूर-दूर तक मतलब नहीं है। बहुत सारे वैश्य नेता विभिन्न दलों के पेशिआ सांप होते हैं अथवा दल में अपनी क्षमता प्रदर्शन के लिए वैश्यों का उपयोग करना चाहते हैं।
इस अवस्था में वैश्य का कितना भला हो सकेगा? वैश्य के प्रतिभाशाली लोगों की उपेक्षा की
जाती है, संगठन में उसे जोड़ा नहीं जाता है। जो लोग मुंह पर खड़ी-खोटी सुना देते हैं। उन्हें दुश्मन समझा जाता है। इस कारण वैश्य संगठन पाॅकिट संगठन से ज्यादा अस्तित्व नहीं रखता है।
वैश्य नेताओं को यूरोप के यूरो संघ से सबक लेना चाहिए जिसमें 27 देश शामिल है। इन नेताओं को भारत सरकार के विदेश नीति से सबक लेना चाहिए। राष्ट्र संघ और विश्व में अपनी पकड़ को मजबूत करने के लिए भारत विश्व के अत्यंत छोटे-छोटे देश के साथ मध्ुर संबंध् बना रहा है, ये देश में कोई भारत के प्रदेश और कोई देश जिला से बड़ा नहीं है।
वैश्य नेताओं के बीच प्रतियोगिता और प्रतिस्पर्ध निम्न स्तर पर पहुंच गया है, आपस में बातचीत और विचार-विमर्श का अभाव है। नये लोग की तलाश और खोज दूर की कौड़ी बन गयी है। समय रहते नहीं चेते, तो हम झोली ढ़ोते आये हैं, और झोली ढ़ोते ही रह जाएंगे।
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