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सम्पादकीय : राजनीतिक जागरूकता में चुनाव की भूमिका

2025 ई., बिहार विधनसभा का चुनावी वर्ष है। विभिन्न दलों से अपने-आप को प्रत्याशी घोषित कराने के लिए और वैश्य विधयक, अगली बार प्रत्याशी होना सुनिश्चित करने के लिए, मार्च से अगस्त के अंतिम दिन तक वैश्य के विभिन्न घटक ने रैली, रैला, महारैला, किया है, कर रहा है। इसमें कुछ रैलियां, सपफल रही, कुछ को सपफल कहा जा सकता है और कुछ सपफलता के पैमाने से कापफी दूर रही।
चुनाव के नाम पर ही सही, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के पूर्ति के लिए ही सही, वैश्य समाज के विभिन्न जातियों में राजनीतिक चर्चा गर्म हो गयी है।
वैश्य समाज के विभिन्न जातियां अपने संख्या बढ़ा-चढ़ाकर बतायी है ताकि उन्हें   विधन सभा में अध्किाध्कि टिकट मिल सके। जिन्हें टिकट, किसी तरह मिलने की आशा नहीं हैऋ वो ध्मकाने में भी पीछे नहीं है, देखना यह दिलचस्प होगा, क्या राजनीतिक दल ‘जिसकी जितनी हिस्सेदारी, उसकी उतनी भागीदारी’ के अनुसार टिकट बंटवारा करती है? या यह केवल एक चुनावी जुमला साबित होगा।
बिहार सरकार ने 2023 में जातिय गणना करा चुकी है, उसे भली-भांति पता हैऋ किस जाति की कितनी संख्या है. आंकड़ा जुटाने में 400 करोड़ रू. खर्च किया गया है। प्रादेशिक स्तर का आंकड़ा प्रसारित किया गया है लेकिन, प्रखंड वार आंकड़ा या जिलावार आंकड़ा नहीं प्रकाशित किया है। सत्ता के पक्ष-प्रतिपक्ष को विधनसभा अनुसार जातिय संख्या का पता होना चाहिए, उनके पास डाटा है। इसका उपयोग कहां तक करेंगे, ये उन्हें ही पता है।
243 विधनसभा में 17.81» सीट पर वैश्य समाज का हक बनता है जो 43 सीट होता है। चूँकि सत्तारूढ़ और विपक्ष की दलें, गठबंध्न के तहत चुनाव लड़ेगी। कौन गठबंध्न वैश्य समाज को कितना सीट देता है, यह देखना होगा। भाजपा 100 सीट पर लड़ती है, उस हिसाब से उसका वैश्य समाज के बीच टिकट बंटवारा लगभग में सही है लेकिन, उसमें जातिय समीकरण को नये सिरे से विचार करने की जरूरत अनुभव की जाएंगी। जिस जाति की जितनी आबादी है, उस हिसाब से टिकट बंटने पर कुछ जातियों के टिकट में कमी आएगी और वंचित जातियों को लाभ मिलने की संभावना का राह खुलती दिखती है, ऐसे मेंऋ वैश्य समाज से इस बार, कुछ विधयकों का पत्ता सापफ होने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता है।
वत्र्तमान परिवेश में बिहार में सरकार के प्रति जनाक्रोश नहीं है, लोग खुश नहीं है, तो नाराज भी नहीं है. नवोदित दलों का भी अपना पैगाम है, जो आज की तारीख में सत्ता की पहली सीढ़ी वोटकटवा के रूप मेंऋ अपनी स्थिति मजबूत बताने की आशा दिखा रही है। लेकिन किसका वोट कटेगा, यह कहना मुश्किल है।
चुनाव प्रक्रिया ही सराहना का पात्रा है, जब-जब चुनाव आता है, वैश्यों की राजनीतिक सक्रियता सामने दिखती है, अन्यथा कुंभकरणी नींद में सोता रहता है। समाज के जागृत होने की दिशा में सार्थक पहल दिखता है। लगे रहने से भगवान मिल जाता है, सत्ता की बात क्या है?

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